Friday, 10 April 2015

अधिग्रहण पर भ्रामक प्रचार

 अधिग्रहण पर भ्रामक प्रचार

भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर विपक्षी दलों की आपत्तियों को आधारहीन मान रहे हैं -

गोपाल कृष्ण अग्रवाल

भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर विपक्ष के तेवर काफी आक्रामक हो गए है। कई विपक्षी पार्टियों ने पैदल मार्च कर राष्ट्रपति को इसुके विरोध में ज्ञापन सौपा। उनका दावा है कि वर्तमान संशोधनों से इस विधेयक का स्वरूप किसान विरोधी हो जाएगा। जब भाजपा एक अध्यादेश के तहत संशोधन दिसंबर में लाई थी तो चारों तरफ इसका विरोध हुआ था। इसी को ध्यान में रखकर यह बताना आवश्यक है कि अध्यादेश लाना कानूनो आवश्यकता थी। भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में एक क्लॉज था जिसके तहत 13 पूर्व कानूनों पर नया भूमि अधिग्रहण कानून लागू नहीं होता। इसलिए उन 43 एक्ट के तहत अधिग्रहीत की गई भूमि पर मुआवजा पुराने रेट से ही किसानों को मिलता अगर उसको नए एक्ट के तहत 31 दिसंबर 2014 तक नहीं लाया जाता। 

नए कानून के तहत किसानों को ज्यादा मुआवजा मिले. इसके लिए अध्यादेश लाना जरूरी हो गया था। यह किसानों के हित की बात थी। अध्यादेश के बाद जब संशोधन विधेयक संसद में लाया गया तो हर जगह इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं हुई। हर जगह कहा गया कि यह संशोधन किसान विरोधी है जबकि स्थिति ऐसी नहीं है। संशोधन किसान विरोधी नाहीं है। पाटी नेतृत्व को लगा कि यह सब भ्रामक स्थितियों के कारण है। इसमें विरोधी दलों का दुष्प्रचार भी शामिल है। भाजपा ने महसूस किया कि किसानों से सीधी बात करनी चाहिए और उनकी जरूरतों पर चर्चा करनी चाहिए। किसान एवं किसान संगठनों से सीधी वार्ता एवं उनके सुझशवों को शामिल करने के लिए भाजपा ने छह सदस्यीय भूमि अधिग्रहण समिति का गठन किया। अलग-अलग संशोधनों पर उनके विचारों को शामिल कर ही रिपोर्ट देनी थी, जो उस समिति ने दी और सरकार ने इस संशोधन विधेयक में कुल नौ और संशोधन पेश करके लोकसभा में पारित करवाया।

रिपोर्ट में हमने कुछ समस्याएं बताई थी। आम तौर से आप देखेंगे तो किसान इस एक्ट के तहत भूमि अधिग्रहण के पक्ष में है। वे यह भी जानते हैं कि अगर इसमें सरकार थोड़ा संशोधन नहीं करती तो वर्तमान कानून में इतनी पेचीदगियां है कि कोई अधिग्रहण के लिए सामने नहीं आएगा और अगर यह प्रक्रिया नहीं होती है तो आज जो खेती का हाल है उससे जीविका चलाना मुश्किल है। भूमि अधिग्रहण एक्ट 2013 के बारे में सभी की मान्यता है कि यह किसानों के हित में है। यह जानना आवश्यक है कि उसमें भी सरकारी परियोजनाओं के लिए भू-स्वामी की सहमति का कत्र्याज नहीं है। उसमें केवल दो प्रकार के अधिग्रहणों के लिए किसानों की सहमति की बात यो। पहला अगर सरकार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहीत करती है तो ही 70 प्रतिशत भू स्वामियों से सहमति लेने की आवश्यकता थी और अगर सरकार किसी प्राइवेट परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहीत करती है तो उसमें 80 प्रतिशत भू-स्वामियों की सहमति की जरूरत थी। इसके अलावा अगर सरकार अपने लिए नौ क्षेत्रों की परियोजनाओं में किसी भूमि का अधिग्रहण करती तो उसमें सहमति वाला क्लॉज नहीं था। यह अधिग्रहण सरकारी प्रोजेक्ट के लिए है, जिसमें किसानों की रसहमति की आवश्यकता नाहीं थी। पुराने एक्ट के 9 क्षेत्र जिसमें सहमति जरूरी नहीं है इसमें अब केवल 5 और आवश्यक क्षेत्रों को जोड़ा है।

पूर्व में कुछ आवश्यकताओं के लिए भूमि अधिग्रह्नण पर सहमति नहीं चाहिए थी। पहली सुरक्षा संबंधी आवश्यकता के लिए। दूसरी आधारभूत ढांचे के लिए। तीसरी कृषि क्षेत्र की आवश्यकताओं के लिए। चौथी इंडस्ट्रीषल कोरिडोर के लिए। पांचवीं सामरिक प्रयोजनों या भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा अथवा राज्य पुलिस, जनररुधारण की सुरक्षा के महत्वपूर्ण कार्य के लिए। छठवीं भारत सरकार के के आर्थिक कार्य, कृषि प्रसंस्करण शैक्षणिक और अनुसंधान स्कीमों इत्यादि के लिए। सातवी परियोजना से प्रभावित कुटुबों की पुनर्वास परियोजना के लिए। आठवीं विशेष वर्ग के लिए और गृह निर्माण परियोजना। नौवीं निर्धन, भूमिहीन या प्राकृतिक आपदा से प्रभावित व्यक्तियों के लिए। इसलिए स्पष्ट होना चाहिए कि सरकार ने अब इसमें पांच नई आवश्यकताओं को ही सम्मिलित किया है। बिना सहमति से भूमि अधिग्रहीत किए जाने वाले जो पांच वर्ग है उनमें इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट, इडस्ट्रियल कोरिडोर जैसे बिंदुओं को और भी सौमित किया गया है। इसे सरकार ने माना कि इंडस्ट्रीयल कोरिडोर के दोनों तरफ एक-एक किलोमीटर से ज्यादा का क्षेत्र अधिग्रहीत नहीं किया जाएगा। निजी-सार्वजनिक भागीदारी वाली परियोजनाएं जिसमें भूमि का स्वामित्व तो सरकार के पास ही रहेगा उसमें भी सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहीत करने का अधिकार सरकार ने अपने पास से हटा लिया है। निजी अस्पताल और निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए भूमि अधिग्रहीत नहीं की जाएगी।

कुछ लोगों का इस पर मतभेद है कि सरकार ने सामाजिक प्रभाव आकलन की आवश्यकता को भी हटाया है। यह धारणा सही नहीं। सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि परियोजना के लिए जितनी जमीन मांगी गई है, क्या वास्तव में उतनी जमीन की आवश्यकता है और इतनी जमीन ही अधिग्रहीत की जाए जितनी कम से कम आवश्यक हो। देश में जितनी बंजर भूमि है उसका सर्वेक्षण कर एक 'लैंड बैंक' बनाया जाए जिसमें परियोजनाओं को लगाने की छूट हो। इस सारी बंजर भूमि की जानकारी संलग्नक में दी जाए। 

अधिग्रहीत क्षेत्र में खेतिहर मजदूर के परिवार के कम से कम एक सदस्य को परियोजना में रोजगार देना आवश्यक किया गया है। फिर भी अगर सबका विचार बनेगा तो सामाजिक प्रभाव आकलन का संशोधित रूप लागू किया जा सकता है। संशोधनों के तहत अब बिल में किसानों की ज्यादातर बात मान ली गई है। 

अब जो विपक्ष का मार्च है वह केवल राजनीति के तहत ही लगता है, क्योंकि जिला स्तर पर किसानों की शिकायतों के निस्तारण के लिए ट्रिब्यूनल का गठन करने की बात और उसकी सुनवाई भी जिला स्तर पर ही किए जाने का प्रावधान और साथ में राज्य सरकारों को इस संशोधन को लागू करने या न करने की स्वतंत्रता देकर केंद्र सरकार ने राज्यों को काफी स्वतंत्रता दे दी है। अब इस आदोलन की आवश्यकता नहीं है।

किसान जानते है कि अगर सरकार संशोधन नहीं करती तो वर्तमान कानून में इतनी पेचीद गियां हैं कि कोई अधिग्रहण के लिए सामने नहीं आएगा

(लेखक भाजपा की भूमि अधिग्रहण समिति के सदस्य हैं)

Wednesday, 1 April 2015

भूमि-अधिग्रहण का सच एवं भ्रम

 भूमि-अधिग्रहण का सच एवं भ्रम

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,
आर्थिक मामलों पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता

भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर विपक्षी दलों ने देशभर में जो माहौल बनाया है उससे भ्रम अधिक फैला है। जबकि सच्चाई दब कर रह गई है।

भूमि अधिग्रहण संसोधन विधेयक पर विपक्ष के तेवर उक्रामक हैं। उनका दावा है कि वर्तमान संशोधनों से इस विधेयक का स्वरूप किसान विरोधी हो जाएगा। ध्यान होगा कि जब भारतीय जनता पार्टी ने एक अध्यादेश के तहत दिसंबर 2014 में संशोधन लेकर लाई थी तो चारों तरफ इसका विरोध हुआ था। इसी को ध्यान में रखकर यह बताना आवश्यक है कि अध्यादेश लाना कानूनी अवश्यकता थो। 'भूमि अधिषहण विधेयक 2013' में एक क्लॉज था, जिसके तहत 13 पूर्व ऐक्ट ऐसे थे, जिन पर नवा भूमि अधिग्रहण कानून लागू नहीं होता। इसलिए उन 13 कानून के बहत अधिग्रहित की गई भूमि पर मुआवजा पुराने दर से ही किसानों को मिलता, यदि उसको 31 दिसंबर, 2014 तक इस नए कानून के तहत नहीं ल्या जाता। नए कानून कानून के तहत किसानों को ज्यादा मुआवजा मिले, इसके लिए अध्यादेश लाना जरुरी या। अध्यादेश के बाद जन संशोधन विधेयक संसद में लाया गया तो हर जगह इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। यह कहा गया कि यह संशोधन किसान विरोधी है। जबकि स्थिति ऐसी नहीं है। जो भ्रम फैलाया गया, उसे दूर करने के लिए भाजपा ने छह सदस्यीय भूमि अधिग्रहण समिति का गठन किया। किसान संगठनों के प्रतिनिधि और सीधे किसानों से मुलाकात कर समिति ने एक रिपोर्ट थी।

 इसके बाद सरकार ने संशोधन विधेवक में कुल नौ संशोधन पेल कर लोकसभा में पारित करवाए। समिति ने रिपोर्ट में कुछेक व्यावहारिक समस्याएं गिनाई थीं। दरअसल, देश की 60 प्रतिशत से अधिक जनता खेती पर निर्भर है, जिसकी देश की सकल घरेलू उत्पादन में मात्र 13 प्रतिशत भागीदारी है। पू-स्वामी की औसत भूमि कर पट्टा बहुत छोटा हो गया है, जो व्यापारिक खेती के लिए पर्याप्त नहीं है। इन सब लोगों को वैकल्पिक रोजगार के संसाधन ढूंढ़ने पढ़ेंगे। साथ ही यदि इनको भूमि की कीमत सही नहीं मिली तो परिस्थिति विफ्ट हो जाएगी। अधिग्रहण से कम से कम उसका मूल्य ठीक-ठाक मिल जाता है। साय हो जिस क्षेत्र में आधारभूत ढांचे का निर्माण होता है, उसके आस-पास की भूमि के दाम भी बढ़ जाते हैं। यह समहाना होगा कि भू-अधिग्रहण के बाद ही तो देश के सभी कोने में आधारभूत संरचना को तैयार किया जा सका है।

 अगर इन संशोधनों को हम बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि लोगों की चिंवा भूमि अधिग्रहण कानून में भू-स्वामी की सहमति से जुड़े एक क्लॉज को लेकर थी, जिसे भाजपा ने हटा दिया। भूमि अधिग्रहण बरनून 2013 के बारे में सभी की मान्यता है कि यह किसानों के हित में है। यह जानना आवश्यक है कि उसमें भी सरकारी परियोजनाओं के लिए भू-स्वामी की सहमति का बलॉज नहीं था। केवल दो प्रकार के अधिग्रहणों के लिए किसानों की सहमति की बात थी। पहला अगर सरकार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहित करती है तो 70 प्रतिशव भू-स्व्वामियों से सहमति लेने की आवश्यकता थी। अगर सरकार किसी प्राइवेट परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहित करती है वो 80 प्रतिशत भू-स्यामियों की सहमति की जरूरत थी। इसके अतिरिक्त यदि सरकार अपने लिए लगभग नौ क्षेत्र की परियोजनाओं में किसी भूमि पर अधिग्रहण करती तो उसमें सहमति वाले क्लॉज नहीं थे। यह अधिधाहण सरकारी परियोजना के लिए था, जिसमें किखनों की सहमति की आवश्यकता नहीं थी। पुराने कानून के नौ क्षेत्र जिसमें सहमति जरूरी नहीं थी, उसमें अब सरकार ने केवल पांच आवश्यक क्षेत्रों को रखा है।

 बगैर सहमति के भूमि अधिद्याहित किए जाने वाले जो पांच क्षेत्रों को जोड़ा है, उसमे आधारभूत संरचना, औद्योगिक क्षेत्र के विकास जैसे को शामिल किया गया है। इसमें सरकार ने कहा है कि औद्योगिक क्षेत्र के दोनों तरफ एक-एक किलोमीटर से ज्यादा क्षेत्र अधिग्रहित नहीं किया जाएगा। 'पीपीपी' परियोजना में भूमि का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा, उसमें भी सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहित करने का अधिकार सरकार ने अपने पास से हटा लिया है। निजी अस्पताल और निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए भूमि अधिग्रहित नहीं की जाएगी। वे सुझाव हमें मिले थे, जिसे सरकार ने माना भी है। मुआवजे की रकम मिलने में वर्षों लग जाते हैं, ऐसी समस्या भी सामने आई। इससे निपटने के लिए जिला स्तर पर समाधान केन्द्र स्थापित करने की यात को सरकार ने माना। इस तरह ज्यादातर सुझावों को सरकार ने मान लिया है। जब इस बिल को लोकसभा में आया गया था, तब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के कुछ घटक दान भी इसके पक्ष में नहीं थे, लेकिन उनके सुदयवों को शामिल किया गया। मुझे लगता है कि राज्यसभा में आने तक राजग के घटक इसके पक्ष में तो आ ही जाएंगे। अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी सरकार के साथ आना चाहिए। ऐसे गंभीर मसले पर राजनीति साधना ठीक नहीं है, क्योंकि इससे देश का विकास बाधित होगा।