Saturday, 14 July 2018

विकास के लिए जरुरी है तेल

 विकास के लिए जरुरी है तेल

गोपाल कृष्ण अग्रवाल,

पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत हमेशा से ही एक विवादित मुद्दा रहा है। एक तरफ घरेलू मुद्रास्फीति पर इसका बड़ा असर पड़ता है और दूसरी ओर यह केंद्र और राज्य के लिए राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। तेल पदार्थ के उपभोग की आवश्यकताओं के लिए 80 फीसद से अधिक हमारी आयात पर निर्भरता इसकी कीमतों को निर्धारित करने की हमारी क्षमता को काफी कमजोर करती है। एक डॉलर कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में वृद्धि से भारत में पेट्रोल और डीजल की कीमत में रुपये 0.50 प्रति लीटर की बढ़ोतरी होती है और अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की विनिमय दर में गिरावट से भारत में पेट्रोल और डीजल की कीमत में रुपये 0.65 प्रति लीटर की वृद्धि होती है। इस प्रकार पेट्रोलियम पदार्थ के मूल्य निर्धारण में हम माहरी कारकों पर ही अधिक निर्भर है।

2004-08 के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को कृत्रिम रूप से कम करने के लिए सरकारी सब्सिडी अपर्याप्त साबित हो रही थी। चूंकि यूपीए सरकार की वित्तीय स्थिति पहले से ही खराब थी, इसलिए वह नकद सब्सिडी के स्थान पर ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को तेल बांड जारी करने के वैकल्पिक का सहारा लिया। तेल बांड के मूल धन एवं ब्याज राशि भी सरकार द्वारा बजट प्रावधान में नहीं दधाए गए जिसकेपरिणामस्वरूप बढ़े हुए राजकोषीय घाटे का कृत्रिम मूल्यांकन हुआ। 2005-06 और 2009-10 के बीच सरकार द्वारा 1,42,202 करोड़ रुपये के तेल बांड जारी किए गए थे, जिनकी ब्याज दर 7.33 से 8.4 फीसद थी। इस राशि को ब्याज सहित भविष्य की सरकारों द्वारा 2024-25 तक चुकाना था।

इस खराब वित्तीय स्थिति ने आर्थिक स्तर पर ब्याज दरों में काफी बढ़ोतरी की और सामान्य जन के लिए महंगाई की मुद्रास्फीति को बढ़ा दिया। इस प्रकार लोग कृत्रिम रूप से कम कीमत पर पेट्रोल और डीजल प्राप्त तो कर रहे थे, लेकिन वे लगभग सभी चीजों के लिए अधिक कीमत भी चुका रहे थे। यूपीए सरकार द्वारा तैयार इस तंत्र ने सरकारी तेल कंपनियों की आर्थिक स्थिति खराब कर दी।

दूसरा तर्क है कि भारत में पेट्रोलियम उत्पादों पर अत्यधिक कर लगाया गया है में और उन्हें बढ़ती कीमतों को निर्यात्रत करने के लिए नीचे लाया जाना चाहिए। पहले तो भारत के आर्थिक विकास, बेहतर जीवन के लिए , आधारभूत बुनियादी ढांचे का निर्माण और गरीब वर्गों और पिछड़े क्षेत्रों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस राजस्व की जरूरत है। दूसरा, पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र सरकार के करो का एक बड़ा हिस्सा; - मूल उत्पाद शुल्क का 42 फीसद राज्य सरकारों को दिया जाता है और शेष कर राशि 58 फीसद का भी 60 फीसद (यानी 34.8 फीसद) केंद्रीय प्रायोजित कल्याण योजनाओं पर खर्च के लिए प्रदेश सरकार को दिया जाता है। इस प्रकार राज्यों में स्थानांतरित कुल राशि 76.8 फीसद है। सरकारी अनुमान है कि केंद्र द्वारा पेट्रोलियम पदार्थ पर उत्पाद शुल्क में 1 रुपये की कटौती से उसका राजस्व संग्रह 14,000 करोड़ रुपये कम हो जाएगा।

केंद्र और राज्यों द्वारा एकत्रित कर पर पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि का असर स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। केंद्र द्वारा लगाए गए कर, प्रति यूनिट के आधार पर तय किए गए है। इसलिए यदि खपत गिरती है तो केंद्रीय कर कम हो जाता है। राज्य, मूल्यानुसार कर लेते हैं जिससे पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि के साथ, इससे कर की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों के चलते पेट्रोलियम उत्पादों पर करों को केंद्र की तुलना में राज्यों को अधिक कम करना चाहिए।

हमें इस कठिन समस्या का दीर्घकालिक समाधान भी खोजना जरूरी है जिसके लिए हमें ऊर्जा खपत मिश्रण में पेट्रोलियम उत्पादों के हिस्से (34.48 फीसद, वर्ष 2015-16) को बदलना होगा। हमें कोयले और लिग्नाइट (46.28 फीसद) से अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने की जरूरत है, जल, सौर, हाइड्रो, परमाणु अन्य नवीकरणीय स्रोतों (12.75 फीसद) से अधिक बिजली उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। मोदी सरकार इस दीर्घकालिक समाधान पर काम कर रही है और आने वाले वर्षों में जब इस स्रोतों से ऊर्जा मिलने लगेगी तो पेट्रोलियम उत्पादों के उपयोग में अपने आप गिरावट देखी जाएगी।

(भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता)

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