कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल केवल विरोध के लिए कृषि सुधार कानूनों का विरोध कर रहे हैं। 2012 में कांग्रेसी नेता इन्हीं कानूनों की वकालत संसद से लेकर सड़क तक करते थे। अब जब भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने इन कानूनों को बना दिया है तो सोनिया, राहुल और और उनके चहेते नेता किसानों को बरगला रहे हैं। पाखंड की भी कोई सीमा होती है
इन दिनों कृषि सुधार कानूनों को लेकर विपक्षी, खासकर कांग्रेसी, नेताओं के बयान बहुत ही गैर जिम्मेदार हैं। ये लोग अपने ही पुराने बयानों को भुलाकर किसानों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हालांकि किसान उनकी असली मंशा समझ रहे हैं।
अब पहले एक तथ्य पर नजर डालते हैं। 2020-21 की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट एक गंभीर मुद्दा है। लेकिन जीडीपी के आकड़े दर्शाते हैं कि कृषि क्षेत्र में वृद्धि 3.4 प्रतिशत की हुई है, जो अच्छे संकेत दे रहे हैं। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र, अर्थव्यवस्था के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
कोविड-19 समस्या के परिणामों और कठिनाइयों से निपटने के लिए, मोदी सरकार ने मई 2020 में 'आत्मनिर्भर भारत' पैकेज की घोषणा की थी। जबकि अधिकांश उपाय अल्पकालिक चुनौतियों का सामना करने से संबंधित हैं, लेकिन कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र आदि में कुछ बड़े सुधार के उपायों की भी घोषणा की गई थी।
इन घोषणाओं के अनुरूप केंद्र सरकार ने 5 जून, 2020 को तीन अध्यादेश जारी किए थे। वे कृषि उपज, वाणिज्य और व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) अध्यादेश, मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश थे।
ये अध्यादेश पूर्ववर्ती सरकार के किसानों के कल्याण के नाम पर गलत हस्तक्षेप को सीधा विराम लगाने के लिए थे। कृषि क्षेत्र में आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने के लिए, खुदरा वितरण, वेयरहाउसिंग, कोल्ड स्टोरेज और परिवहन आवाजाही आदि में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। यह बड़ा निवेश अकेले निजी क्षेत्र से ही आ सकता है। लेकिन जब तक हम भंडारण की सीमा नहीं हटाते हैं निजी निवेश एवं 'वेल्यू एडिशन' नहीं होगा। भारतीय कृषि, कम उपज से प्रचुरता की ओर बढ़ रही है इसलिए वर्ष 1955 से लागू आवश्यक वस्तुओं के कानून पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
कृषि क्षेत्र के ये सुधार, व्यापक अर्थव्यवस्था के विकास के लिए वर्ष 1991 के समय के मूलभूत बदलावों के समान ही हैं। सभी प्रमुख अर्थशास्त्रियों और कृषि विशेषज्ञों द्वारा इसका स्वागत भी किया गया है। इन सभी सुधारों की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही थी। 'राज्य मंत्रियों की समिति’ द्वारा कृषि बाजार सुधारों को लागू करने के लिए कृषि विपणन प्रणाली वाली अपनी रिपोर्ट में इन सभी आवश्यकता पर जोर दिया गया था। कृषि पर संसदीय स्थाई समिति की 62वीं रिपोर्ट में भी यही बात दोहराई गई थी। चूँकि यह रिपोर्ट राजनीतिक पक्षपात में नहीं फंसी थी, इसलिए इसे लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त हुआ था।
अब जबकि सरकार द्वारा संसद में उपरोक्त अध्यादेशों की जगह कानून बनाए गए हैं तो कांग्रेस, कुछ अन्य राजनीतिक दल और उनसे जुड़े किसान और बिचौलियों से संबंधित संगठन अपने नुकसान को ध्यान में रख कर कोलाहल मचा रहे हैं। पहले विपक्ष द्वारा संसद के अन्दर झूठी बातें कही गईं और बाद में बाहर लगातार गलत सूचना एवं अफवाहें फैलाई जा रही हैं। यह बहुत ही दुखद है कि इस प्रकार किसानों के हितों की अनदेखी करके कहा जा रहा है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म कर देगी, जबकि सरकार द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि एमएसपी व्यवस्था को हटाने का कोई सवाल ही नहीं है। और संसद में भी इस वर्ष की एमएसपी की बढ़ी हुई खरीद की दरों का भी ऐलान कर दिया गया है।
मंडी अधिनियम भारतीय संविधान के अंतर्गत राज्यों के दायरे में आते हैं और इसलिए केंद्र का इसमें एकतरफा संशोधन करने का कोई अधिकार ही नहीं है। केवल अंतर-राज्यीय कमोडिटी ट्रेड ही केन्द्र के अधीन आते हैं। इसलिए मौजूदा मंडी संरचना को समाप्त नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में स्थानीय मंडियों के माध्यम से संबंधित राज्य सरकार द्वारा एमएसपी पर खरीद किया जाने वाला प्रशासनिक तंत्र है, वह यथावत चलता रहेगा।
हालांकि एमएसपी का उद्देश्य किसानों को न्यूनतम मूल्य प्रदान करना था, लेकिन समय के साथ यह मूल्य बाजार में अधिकतम मूल्य बन गया। अब कृषि उपज के लिए व्यापार और वाणिज्य की वैकल्पिक बाजार सुविधा प्रदान करने के लिए नए अधिनियम के साथ कई नई संभावना बन रही हैं। निजी बाजारों से प्रतिस्पर्धा के कारण मंडियां अब किसानों की उपज खरीद का एकाधिकार नहीं कर सकेंगी।
जहां तक किसानों के अपनी जमीन को कॉरपोरेट के पास खोने की बात है। मूल्य आश्वासन और फार्म सेवा, 2020 अधिनियम,किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता, कृषि उत्पाद के खरीद का समझौता है न कि किसान की भूमि के बारे में समझौता है। इस अधिनियम में किसानों के लिए उनकी भूमि पर कई सुरक्षा के नए उपाय भी हैं। उपज के नुकसान के मामले में किसानों को ही बीमा क्षतिपूर्ति का लाभ मिलेगा और उनकी भूमि पर उपयोग किए जाने वाले उपकरणों को उनके लिए ही संरक्षित किया गया है। अधिनियम के अन्दर विवाद समाधान की प्रक्रिया को भी जिला स्तर पर जिला बोर्ड के माध्यम से निर्धारित किया गया है। किसानों को न्याय पाने के लिए एक अदालत से दूसरे अदालत में अब चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।
2014 के बाद से जिम्मेदार विपक्ष का अभाव भारतीय राजनीति का एक हिस्सा बनता जा रहा है। मोदी सरकार ने जो कुछ भी किया है, उसका विरोध कांग्रेस पार्टी को करना ही है। यह सोच पूर्णतः गलत है, जबकि कांग्रेस ने खुद सत्ता में रहते हुए इन नीतियों की पैरवी की थी। कांग्रेस पार्टी ने अपने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणापत्र में इन उपायों का जनता से वादा भी किया था।
सभी तीन अधिनियम कृषि बाजारों के सुधार के लिए ही हैं। नए और राष्ट्रीय बाजारों के विकल्प देना, बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए निजी निवेश को आकर्षित करना, बेहतर मूल्य के निर्धारण में मदद करना, सूचना प्रसार तंत्र स्थापित करना और किसानों को उनकी उपज के लिए उचित मूल्य आश्वासन प्रदान करना इनका लक्ष्य है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों के हित के लिए दिन-रात प्रयासरत हैं, और सही सूचना जन-जन तक पहुंचाने के लिए भारतीय जनता पार्टी सतत कार्य कर रही है।
(लेखक भाजपा के आर्थिक मामले के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)
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