साहसी सरकार कर रही है व्यापक मूलभूत सुधार
मौजूदा केंद्र सरकार यदि यथास्थितिवाद में विश्वास रखती तो पिछली सरकारों की तरह झूठे वादे कर बरगलाती रहती
ये तीन कृषि बिल सिर्फ सामान्य बदलाव भर नहीं हैं। इस क्षेत्र में व्यापक सुधार के लिए सुविचारित कार्ययोजना को मूर्त रूप देने की पहल हैं। जब भी किसी अहम क्षेत्र में ऐसे बड़े सुधार होते हैं, सरकार को अपनी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगानी होती है। देश के अन्नदाताओं के लिए यह साहस भरा कदम मोदी सरकार ने उठाया है। सरकार यथास्थितिवाद में विश्वास रखती तो पहले की तरह झूठे आश्वासन दे कर बरगलाती रहती। 70 वर्षों से चली आ रही किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए यह बड़ा कदम उठाया गया है।
इन आंदोलनकारियों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे किसान नहीं है या फिर वे राष्ट्रविरोधी है, लेकिन उनके विरोध को गंभीरता से देख कर उसका निष्पक्ष आकलन करने की जरूरत है। इसमें मुख्यतः पंजाब-हरियाणा तथा सीमित रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान व आढ़ती परोक्ष-अपरोक्ष रूप से शामिल है। इनकी धान और गेहूं की लगभग 90 फीसदी खरीद सरकारी एजेंसियों से हो जाती है। राष्ट्रीय परिदृश्य देखें तो ये अपेक्षाकृत संपन्न किसान हैं और आढ़तिए इनके साथ है। इन्हें लग रहा है कि नई व्यवस्था में इनका अपना हित प्रभावित होगा, इसलिए ये संघर्ष कर रहे हैं और यथास्थिति बनाए रखने में दिलचस्पी ले रहे हैं। लेकिन देश के अन्य भागों में बाजार व्यवस्था चरमराई हुई है।
सरकार के लिए बाकी 70 से 80 फीसदी किसान इनसे कम अहमियत नहीं रखते, इसलिए बाजार की यथास्थिति को बदलना चाहती है। और भी फसल है और दूसरे किसान हैं, उनके लिए सुधार बहुत जरूरी है। आंदोलन कर रहे वर्ग की बातों को भी सरकार ने पूरे ध्यान से सुना और महत्त्व दिया है। सरकार ने अब तक पांच चक्र की बातचीत की है। इस दौरान किसानों के कई सुझावों को रजामंदी भी दी है। नए बिल में बनने वाली प्राइवेट मंडियों के लिए भी समान कर प्रावधान जोड़ने को तैयार हुई। विवाद की स्थिति में एसडीएम के पास जाने की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि समयबद्ध तरीके से उन्हें न्याय मिल सके। लेकिन मांग के मुताबिक सामान्य अदालती व्यवस्था में जाने के प्रावधान को लागू करने को तैयार हुई है। जो कह रहे हैं कि कोरोना के बीच बिना चर्चा किए ये बिल लाने की क्या जरूरत थी, वे स्थिति की गंभीरता और सचाई को पूरी तरह झुठला रहे है।
पिछले 20 साल से देश में इन पर चर्चा हुई है, वैकल्पिक बाजारों की सिफारिशें आई हैं। राज्यों के कृषि मंत्रियों की समिति ने भी सलाह दी है। संसद की कृषि संबंधी समिति की 62वीं रिपोर्ट में भी यही कहा गया। समिति ने पूरे देश में घूम कर मशविरा किया। तब जाकर जून में यह अध्यादेश आया, फिर संसद में पारित किया गया। किसानों के नाम पर की जा रही राजनीति को भी समझना चाहिए। जिस कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में लिखा कि एपीएमसी (मंडी समितियों) को समाप्त कर देंगे, वह किसानों को मंडियों और एमएसपी के खत्म होने का डर दिखा कर बरगला रही है, एमएसपी का भ्रम फैलाया जा रहा है, जिसका बिल से कोई संबंध नहीं है। किसानों की आय जैसे बेहद महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर पिछले चार-पांच वर्षों में पहली बार इतनी गंभीरता से कदम उठाए गए हैं।
इस सरकार ने समझा है कि जब तक किसानों के लिए यह काम लाभदायक नहीं बना दिया जाता, तब तक देश के संतुलित और सतत विकास को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। यह पिछले 20 साल में बनी सहमति है, सरकार अपनी कठिनाइयां बढ़ा कर भी देश के लिए जरूरी इस सुधार को लागू करने को कृत संकल्प है।
गोपाल कृष्ण अग्रवाल,
राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा।
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