विपक्ष की ओछी राजनीति
लोकतांत्रिक व्यवस्था में
विपक्ष की, शासक दल पर नियंत्रण रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विपक्ष की जीवंतता
समाज के राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक विकास का मापदंड होती है। लोकतंत्र के उद्देश्यों
को संसद, न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसे विभिन्न संस्थानों के माध्यम से ही पूरा किया
जाता है। मजबूत, स्वतंत्र और विश्वसनीय संस्थानों के बलबूते हो लोकतांत्रिक व्यवस्था
फलती-फूलती है। लोकतंत्र में विश्वास करने वालों को उन संस्थानों का पोषण करना होता
है जिसका विकास कई पीढ़ियों के अथक परिश्रम से हुआ है। संस्था, महान नेताओं के पदचिन्हों
तथा संस्थापकों के सामूहिक ज्ञान को संजोए रखती है। इन सभी संस्थाओं की सुरक्षा की
जिम्मेदारी सामूहिक रूप से सरकार और विपक्ष दोनों की होती है।
हाल के समय में, विपश्च ने
लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई नरेंद्र मोदी सरकार के प्रति अपनी नफरत के चलते इन संस्थानों
को कमजोर करने की कोशिश की है। आजादी के बाद सबसे अधिक समय सत्ता में रही कांग्रेस
ने विभिन्न संस्थानों में वामपंथी और अति- वामपंथी विचारधारा वाले लोगों को स्थान दिया।
वरिष्ठ मंत्री अरुण जेटली सही कहते है कि कांग्रेस ने 'व्यवस्था को भीतर से खत्म करने'
के मार्क्सवादी सिद्धांत का अनुपालन किया। चुनावी प्रक्रिया से जनप्रतिनिधि तो बदल
जाते हैं, लेकिन ये संस्थागत व्यक्ति नहीं बदलते। वर्तमान में संस्थानों को अस्थिर
करने वाले ऐसे सभी लोग एकजुट हो रहे हैं।
ऐतिहासिक रूप से भारत में हमेशा से ही एक मजबूत और मुखर विपक्ष रहा है। यहां तक कि कांग्रेस के चरमोत्कर्ष के दौरान भी यही स्थिति थी। उदाहरण के लिए, आपातकाल के समय लोकतंत्र की रक्षा के लिए विपश्न ने बेहद अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन वर्ष 2014 से सरकार पर लगातार हमले करते हुए विपक्ष इतना अंधा हो गया कि वह राजनीतिक पार्टी, सरकारी कार्यकारी और स्वतंत्र संस्थानों के बीच का अंतर करने में भी विफल रहा है। ये हमले केवल संस्थानों तक ही सीमित नहीं थे, वल्कि इन संस्थानों के प्रमुखों को भी निशाना बनाया गया है। उच्चतम न्यायालय पर विपक्ष का हमला सबसे ज्यादा निंदनीय है। विपक्षी दलों ने पिछले पांच वर्षों में कई मामलों में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।
जब भी फैसला उनके पक्ष में आया उन्होंने न्यायालय की प्रशंसा
की, पर जब तो भी उनकी अर्जी खारिज की गई तो वे उच्चतम न्यायालय पर हमला करने के लिए
एकजुट हो गए। न्यायाधीशों को खुलेआम डराने-धमकाने के प्रयास किए गए। भारत के तत्कालीन
मुख्य न्यायाधीश पर सरकार के पक्ष में फैसले देने के आरोप लगाए गए। यहां तक कि सुप्रीम
कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा 12 जनवरी 2018 को की गई संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस,
जो न्यायालय के आंतरिक कामकाज से संबंधित थी, का उपयोग करते हुए विपक्ष ने ये दर्शाने
की कोशिश की कि ये सभी न्यायाधीश भाजपा सरकार के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक भी विपक्ष
की चपेट में आ चुका है। जब यह स्पष्ट हो गया था कि गवर्नर के रूप में रघुराम राजन का
कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा तो विपक्षी दलों ने दावा किया कि विदेशी निवेशक भारतीय
वित्तीय बाजार से पैसा निकाल लेंगे और रुपये का तेजी से अवमूल्यन होगा। एक व्यक्ति
को पूरे संस्थान से वड़ा बनाने की कोशिश की गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि कुछ मुद्दों पर
वह केंद्र सरकार के खिलाफ नजर आ रहे थे और वार-वार सार्वजनिक मंचों पर बोल रहे थे।
जब नोटबंदी की घोषणा की गई तो यह आरोप लगाया गया कि सरकार ने आरबीआइ के अधिकारों को
नजरअंदाज किया है। तत्कालीन आरवीआइ गवर्नर उर्जित पटेल पर भी आरोप लगाए गए थे।
देश के सशस्त्र बलों को भी विपश्च ने नहीं बख्शा जो सदैव अपने पेशेवर रवैये के लिए जाने जाते हैं। जब भारतीय सेना ने यह घोषणा की थी कि उसने उड़ी में हुए आतंकी हमले के जवाव में कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया है, तो विपश्व ने उसके लिए साक्ष्य मांगे, उन्हें चिंता थी कि कहीं सरकार को श्रेय न मिल जाए। वालाकोट में आतंकी शिविरों पर की गई एयर स्ट्राइक के बाद भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं आई। विपक्ष की प्रतिक्रियाएं और पड़ोसी देश की प्रतिक्रियाओं में काफी समानता थी।
चुनी हुई भाजपा सरकार को नीचा दिखाने के लिए पूरी चुनाव प्रक्रिया को अमान्य करार देने का सबसे बड़ा और भयावह हमला भारत के चुनाव आयोग और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर किया जा रहा है। चुनावों के निष्पक्ष संचालन के लिए भारतीय चुनाव आयोग की दुनिया भर में प्रशंसा होती है। लेकिन जब भी विपक्षी दल चुनाव हार जाते हैं तो जनता के फैसले को विनम्रता के साथ स्वीकार करने की बजाय, वे चुनाव आयोग पर दोष मढ़ने लगते हैं और ईवीएम के हैक किए जाने का राग अलापने लगते हैं।
चुनाव आयोग ने उनके सवालों का जवाब देने की पूरी कोशिश की, यहां तक कि ईवीएम को
हैक करने की खुली चुनौती भी दी, लेकिन विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ। जब इन पार्टियों से
वह पूछा जाता है कि केंद्र में पहली वार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार कैसे बन गई
जबकि पूर्ववर्ती सरकार कांग्रेस के नेतृत्व वाली थी या फिर 2015 में दिल्ली और बिहार
में हुए विधानसभा चुनावों और हाल ही में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा
कैसे हार गई तो इन नेताओं के पास कोई जवाब नहीं है।
जरा सोचिए कि एक दुश्मन देश और उसके मीडिया द्वारा ये कहना कि भारत में हुए चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई, इसका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत सरकार की साख पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। विपक्ष को यह समझना होगा कि वह देश की स्वतंत्र संस्थाओं को कमजोर करके लोकतंत्र में अपनी सही भूमिका नहीं निभा सकता। कुछ चीजों को रोजमर्रा की छोटी राजनीति से दूर रखना चाहिए। देश के महत्वपूर्ण संस्थानों को कमजोर करके उन्हें अल्पकालिक राजनीतिक लाभ तो हो सकता है, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से देखें तो वे हम सबके लिए विनाशकारी सावित होगा।
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