Wednesday 15 May 2019

महागठबंधन का ढोंग और मोदीवाद के विरोध का हौआ


नरेंद्र मोदी से बेइंतेहा नफरत के कारण साथ आए और अपने राजनैतिक अस्तित्व के लिए लड़ने को मजबूर विभिन्न विपक्षी दल, बिना किसी साझा नीति या विचारधारा के, खुद को 'महागठबंधन' का नाम देकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी को इस महागठबंधन का केंद्र माना जा रहा है लेकिन दूसरे राजनैतिक दल उसके नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार कर रहे हैं। राज्य स्तर पर महत्वपूर्ण उपस्थिति रखने वाली सारी पार्टियां भी महागठबंधन में शामिल नहीं हुई हैं। इससे स्पष्ट है कि एनडीए के खिलाफ संयुक्त रूप से एक विपक्षी उम्मीदवार खड़ा करना जितना मुश्किल हो रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ।

अगर हम मतदाताओं के मामले में सबसे बड़े राज्यों से शुरू करें; उत्तर प्रदेश जहां समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) ने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए गठबंधन किया है लेकिन इसमें कांग्रेस नहीं है। पश्चिम बंगाल में कुछ शुरुआती बातचीत के बावजूद ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की संभावना नहीं है और कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के बीच वाकयुद्ध जारी है। दिल्ली में माना जा रहा है कि आम आदमी पार्टी (आप) कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करेगी, इसलिए उनके बीच भी किसी प्रकार के गठबंधन की संभावना नहीं है। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) लेफ्ट डेमोक्रेटिक अलाइंस के खिलाफ खड़ा है और राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद तो लेफ्ट और कांग्रेस के बीच लड़ाई और भी तेज़ हो गई है और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी यही हाल है। कांग्रेस असम में बदरुद्दीन अज़मल के संगठन के साथ भी गठबंधन करने में विफल रही है। इन सभी राज्यों में त्रिकोणीय या बहुकोणीय मुकाबला होगा, जिससे महागठबंधन का कोई औचित्य ही नहीं रहेगा। इन 8 राज्यों में लोकसभा की 226 सीटें हैं।

हालाँकि, कांग्रेस खुद को एक राष्ट्रीय पार्टी कहती है लेकिन बिहार में महागठबंधन की मुख्य सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) है और कांग्रेस को 40 में से सिर्फ नौ सीटें दी गई हैं, जबकि बाकी सीटें उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी जैसे नेताओं के छोटे दलों को दे दी गईं। तमिलनाडु की 39 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस को केवल नौ सीटें मिली हैं जबकि पुडुचेरी में उसे लड़ने के लिए सिर्फ एक सीट दी गई है। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर की तीन लोकसभा सीटों के लिए गठबंधन किया है और तीन अन्य सीटों पर दोस्ताना चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं। कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) ने 8 सीटें पाने के लिए काफी मोलभाव किया है और कांग्रेस 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और राज्य में पहले ही जेडी(एस) के मुख्यमंत्री है।

महागठबंधन में दरारें आ चुकी हैं। झारखंड में 14 लोकसभा सीटें हैं। कांग्रेस को सात सीटें, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को चार, झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) को दो और लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी को एक सीट दी गई थी। आरजेडी ने सीटों के इस बंटवारे पर आपत्ति जताई और चतरा से अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया जबकि यह सीट कांग्रेस के हिस्से में आई थी। झारखंड में सीट बंटवारे के समझौते के अगले दिन ही आरजेडी की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी भाजपा में शामिल हो गईं। महाराष्ट्र में कांग्रेस 26 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अपने लिए 22 सीटें हासिल करने में कामयाब रही है। एनसीपी के साथ गठबंधन के कारण कांग्रेस में आंतरिक कलह चल रही है और कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण भी इससे नाराज़ हैं।
जहां तथाकथित महागठबंधन को लेकर पूरी तरह से अनिश्चितताएं हैं, वहीं एनडीए के पास पहले से ही 39 राजनीतिक दलों का समर्थन है। एनडीए की एकता तभी नज़र आ गई थी जब उन्होंने बिहार की लोकसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा एक साथ की थी। गुजरात के गांधी नगर में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नामांकन के समय भी पूरी ताकत का प्रदर्शन किया गया। भाजपा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। ये दोनों ही भाजपा के वर्षों पुराने सहयोगी हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का विश्लेषण यह बताता है कि चुनाव पूर्व परिदृश्य में महागठबंधन खंड-खंड है और नेतृत्वहीन है। एनडीए की तुलना में अखिल भारतीय स्तर पर महागठबंधन की मौजूदगी भी वैसी नहीं है, जैसे एनडीए के सभी सहयोगी केवल एक नेता को आगे करके रैलियां कर रहे हैं और वो नेता हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। महागठबंधन में शामिल दल कई राज्यों में अलग-अलग चुनाव लड़ सकते हैं और जम्मू-कश्मीर और झारखंड जैसे राज्यों में उनके बीच दोस्ताना लड़ाई भी होगी, यह सीटों के बंटवारे को लेकर किसी भी तरह का समझौता कर पाने में मिली शर्मनाक विफलता के अलावा और कुछ भी नहीं है।

राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता का विश्लेषण यह बताता है कि चुनाव पूर्व परिदृश्य में महागठबंधन खंड-खंड है और नेतृत्वहीन है। एनडीए की तुलना में अखिल भारतीय स्तर पर महागठबंधन की मौजूदगी भी वैसी नहीं है, जैसे एनडीए के सभी सहयोगी केवल एक नेता को आगे करके रैलियां कर रहे हैं और वो नेता हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। महागठबंधन में शामिल दल कई राज्यों में अलग-अलग चुनाव लड़ सकते हैं और जम्मू-कश्मीर और झारखंड जैसे राज्यों में उनके बीच दोस्ताना लड़ाई भी होगी, यह सीटों के बंटवारे को लेकर किसी भी तरह का समझौता कर पाने में मिली शर्मनाक विफलता के अलावा और कुछ भी नहीं है। महागठबंधन का यह शोरशराबा केवल एक ढोंग है और मोदीवाद के विरोध का ये हौआ इस लोकसभा चुनाव से ज्यादा आगे नहीं बढ़ने वाला।


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